हिंसा किसी भी तरह की खराब है... उसे परोपकार और कर्तव्य पालन के मीठे शब्दों से ढँकना बंद कीजिए।



सैकड़ों वर्षों तक यही माना गया कि अगर बच्चों को पीटा ना जाए तो बेलगाम हो जाते हैं, उद्दंड हो जाते हैं, शरारती हो जाते हैं, ढीठ हो जाते हैं।
इसलिए स्कूल/ट्यूशन में बच्चों को पीटना शिक्षकों की मजबूरी बताया गया।
इसे ऐसे पेश किया गया कि टीचर लाचार है... वो तो बच्चों को सुधारने के लिए पीटते हैं वर्ना काम नहीं चलेगा।

बच्चों को पीटने के विरुद्ध कानून ने, और ऑनलाइन क्लास ने ये मिथक तोड़ दिया।
ऑनलाइन क्लास में बच्चों की पीटने की सुविधा ही नहीं होती। और उसके बाद ऐसा नहीं है कि सभी बच्चे आतंकवादी बन रहे हैं, बद्तमीज और ढीठ बन रहे हैं।
मैं बच्चों को कभी नहीं मारता लेकिन उसके बावजूद मुझे ऐसा नहीं लगा कि मेरे ना मारने से कोई बच्चा बिगङ गया हो।
बल्कि जिन बच्चों को मार के बजाय प्यार से समझाया जाता है वो बड़े शानदार और सभ्य होते हैं।

मैं दोनों तरह के व्यवहार का गवाह हूँ इसलिए अन्तर बता सकता हूँ। मैं उस पीढ़ी से हूँ जहां बच्चों को सुधारने के नाम पर उसे निर्दयता से पीटा जाता था।

और दोनों में तुलना कर के निष्कर्ष निकाल सकता हूँ कि बिना अत्याचार के पढ़ने वाली पीढ़ी उस पीढ़ी से कहीं ज्यादा सभ्य, शालीन, समझदार और शानदार है जिसे सुधारने के नाम पर पीटा गया था।
इससे एक बात तो साफ होती है कि बच्चों को पीटना बड़ों के लिए सुधारने का कोई टूल नहीं था बल्कि अपनी निजी जिंदगी की खुन्नस निकालने का ज़रिया मात्र था जिसे परोपकार के पैकेट में परोसा जाता था।

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अब बात करते हैं आंदोलन पर लाठियां चलाने वाले पुलिस बल की।
किसान हो या छात्र, महिलाएं हों या कर्मचारी, अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक आंदोलनकारी.... पुलिस वाले इतनी निर्दयता से लोगों को पीटते हैं कि पूछिये मत।
सिर से खून बह रहा हो लेकिन लाठी मारते रहेंगे। इंसान तड़प रहा हो लेकिन ज़ुल्म जारी रहता है।
कुछ लोग इसके पीछे तर्क देते हैं कि वो बेचारे क्या करें, उन्हें भी तो ऊपर से ऑर्डर रहते हैं। उनको भी तो अपनी ड्यूटी करनी है।
ये तर्क देने वाले लोग वही होते हैं जो बच्चों को पीट कर सुधारने का तर्क दिया करते थे।
हर विभाग को अपने काम करने के सौ तरीके पता होते हैं। मुझे नहीं लगता कि किसी भी आंदोलन में पुलिस बिना हिंसा के चीजें संभाल नहीं सकती। संभाल सकती है।
किसी बड़े नेता के चरणों में बिछ जाने वाली पुलिस किसी नेता के ऊपर जुल्म क्यों नहीं कर पाती?
हर आंदोलन को शांतिप्रिय ढंग से बढ़ाया और थामा जा सकता है।
पुलिस वालों की हिंसा कहीं जायज़ नहीं है।
जिस हिंसा की फोटो और वीडियो देख कर मन विचलित हो जाता है, पुलिस वाले उस हिंसा को अंजाम दे रहे होते हैं।
और बहाना क्या होता है?
कि जी हम तो अपनी ड्यूटी कर रहे थे।
आप अपनी ड्यूटी नहीं कर रहे थे... आप अपनी निजी खुन्नस निकाल रहे थे। किसी नेता से कैमरे पर लताड़ सुनने का गुस्सा आप किसी निहत्थे पर निकाल रहे थे। रिश्वत ना मिलने की भड़ास आप किसी के पीठ पर ज़ख्म दे कर निकाल रहे थे। फिर किसी दिन कोई सिरफिरा आपके साथ बदसलूकी करे तो आप चाहते हैं हमें सहानुभूति हो?
मुझे तो कतई नहीं होगी।
किसी मजबूर, निहत्थे और विरोध प्रदर्शन कर के लोकतंत्र को मजबूत करने वाले पर हिंसा कर के आप अपनी कर्तव्यनिष्ठा का रोना मत रोइये।

ये खेल अब हम सब को समझना चाहिए और आंदोलन कैसा भी हो, उसमें पुलिस की हिंसा को उनकी मजबूरी समझ कर माफ कर देने की प्रथा खत्म कर देनी चाहिए।
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